Saturday, June 25, 2011

लावारिश बैग

                   लावारिश बैग                 
( लघुकथा )

    रेलगाड़ी में काफी भीड़ थी। भोपाल तक आते-आते डिब्बा लगभग खाली हो गया था लेकिन चमड़े का एक बैग ऊपर वाली साइड वर्थ पर अभी भी रखा हुआ था। उसके मन में बैग को लेकर लालच आ गया। उसे अभी और आगे तक जाना था।
भोपाल जंकशन पर डिब्बे में कुछ और यात्री आ गये और भीड़ फिर बढ़ने लगी। अब भी उसकी निगाहें बैग पर टिकी थीं। उस लावारिस बैग पर अब उसने अपना अधिकार-सा मान लिया था। लेकिन अभी तक वह उसे छूने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। उसके चोर मन में भय था कि कहीं बैग को छूते ही उसका असली मालिक न आ जाए।
“ये बैग किसका है ?” -पुलिस इंस्पेक्टर ने बैग को थोड़ा-सा खोलकर देखने के बाद लगभग चौंकते हुए पूछा।
वह चुप बना रहा और जान-बूझकर आँखें बंद करने का नाटक किया।
“मैं पूछ रहा हूँ कि यह बैग आप लोगों में से किसका है?”  -पुलिस इंस्पेक्टर ने फिर से रौबदार आवाज में पूछा।
“मेरा… मेरा बैग है साहब !”  -वह यात्री थोड़ा घबराता हुआ सा बोला।
“तो फिर इसे अपने पास क्यों नहीं रखा… सच-सच बताओ यह बैग तुम्हारा ही है या यूँ ही लावारिस बैग देखकर मन में लालच आ गया है।” -पुलिस इंस्पेक्टर ने उसकी ओर प्रश्न उछाला।
“क्या बात करते हैं साहब! मेरा बैग है… मैंने उसे बर्थ घेरने के लिए रख दिया है।” -उस यात्री ने चेहरे पर आत्मविश्वास लाने की झूठी कोशिश करते हुए कहा।
इंस्पेक्टर उस यात्री को बैग सहित उतार कर थाने ले गया। वह रास्ते भर विरोध करता रहा और बैग पर अपना ही अधिकार बताता रहा।
थाने पहुँच कर पुलिस इंस्पेक्टर ने रजिस्टर में प्रकरण दर्ज करते हुए बैग उसके नाम लिख दिया और उसे बैग सौंपते हुए अपने सामने ही उसे खोलने के लिए कहा।
उसने बैग खोला ही था कि...    
अब वह यात्री पुलिस इंस्पेक्टर के पैरों पर गिरकर बुरी तरह से रो रहा था और कह रहा था कि  “साहब! यह बैग हमारा नहीं है।”    
उस बैग में एक महिला का कटा हुआ सिर पोलिथीन में पैक करके रखा हुआ था।    
अब वह थाने की हवालात में बंद था।

आदत

-डा० जगदीश व्योम    
( लघुकथा )

    सब्जी वाला जब किसी तरह छः रुपए किलो से कम पर लौकी और टमाटर देने को तैयार नहीं हुआ तो मैंने आधा-आधा किलो लौकी-टमाटर और तीन रुपए की एक पाव अदरख देने को कहा। दस रुपए के नोट में से उसने मुझे तीन रुपए वापस कर दिये। मैंने जानबूझकर तीन रुपए चुपचाप जेब में रख लिये।
    “आपको इसने कितने पैसे वापस किये हैं ?”- पत्नी ने मुझसे पूछा।
    “ठीक ही किये हैं...........आओ चलते हैं”- मैंने कहा, और चलने को हुआ।
    “ज़रा देखिये तो”- पत्नी ने फिर दोहराया।
    “मैंने जेब से चुपचाप पैसे निकाले, जिनमें एक दो रुपए का सिक्का था और एक सिक्का एक रुपए का था।”
    “क्यों भाई ! कितने पैसे वापस किये हैं ?”
    “बाबू जी, पूरे पैसे वापस किये हैं............आप हिसाब जोड़ लीजिये।”- सब्जी वाला बोला।
    “नहीं-नहीं......ठीक नहीं दिये हैं।”- मैं एक-एक सब्जी की कीमत पूछने लगा।
    “आलू आधा किलो” - “तीन रुपए ”
    “लौकी आधा किलो” - “तीन रुपए ”
    “अदरख एक पाव”  - “तीन रुपए ”
    “और तुमने मुझे दस के नोट में से तीन रुपए वापस भी कर दिये।”- मैंने जब दो रुपए का सिक्का उसकी ओर बढ़ाया तो उसने उसे लेते हुये मेरी ओर अजीब दृष्टि से देखा।
    “तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत थी ............अरे! ये सब्जी वाले महा हरामखोर होते हैं........कम तौलते हैं, मँहगा देते हैं..........।” - मैंने पत्नी पर झल्लाते हुये कहा।
    “देखिये ! आज अगर आप दो रुपए ज़्यादा ले भी लेते तो आप अमीर तो हो नहीं जाते........हाँ भविष्य के लिये आदत जरूर बिगड़ जाती................ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से व्यक्ति की आदत खराब हो जाती है।”
    पत्नी का यह कथन सुनकर मुझे मेरी संवेदनाओं ने एक जबरदस्त झटका दिया..............मैं उनका मुँह ताकता रह गया। मेरी दृष्टि में पत्नी का कद बहुत ऊँचा हो गया। 

रसीद

-डा० जगदीश व्योम   
( लघुकथा )

वृद्ध और निरीह विकलांगों की एक संस्था के अनुरोध पर आदर्श निकेतन शिक्षण संस्था के प्राचार्य ने दरियादिली दिखायी और छात्र-छात्राओं से सहयोग का अनुरोध किया। छात्र-छात्राओं ने लगभग बारह हजार रुपए एक सप्ताह में ही इकट्ठे कर लिये जिनका चेक बनवाकर संस्था को दे दिया गया। संस्था के प्रतिनिधि ने भी छात्र-छात्राओं को प्रमाण-पत्र दिये और पुरस्कार भी।
    “सर ! एक छात्र चार सौ रुपये आज लाया है, लेकिन चेक तो संस्था को भेज दिया गया                 है............... अब क्या किया जाय ?”............................विद्यालय के शिक्षक राम गोपाल ने प्राचार्य से पूछा।
    “ आप ये रुपए लेकर अपने पास रख लीजिये, फिर इन्हें भेजने की व्यवस्था करते हैं।”
    “ ठीक है ” कहते हुये रामगोपाल ने एक लिफाफे में रखकर रुपए सुरक्षित रख दिये।
    “ रामगोपाल जी ! पिछले सप्ताह निरीक्षक दल के चाय नाश्ते का बिल लेकर ये महाशय आये हैं...............ऐसा करिये........आप ........वो चार सौ रुपये इन्हें दे दीजिये, और इनसे रसीद ले लीजिये।“- एक व्यक्ति की तरफ संकेत करते हुये प्रिंसिपल ने निर्देश दिया।
    रामगोपाल जी चार सौ रुपये की रसीद हाथ में थामे शून्य में न जाने क्या ताकते रह गये।            

Friday, June 10, 2011

दो बूँदें

                                                                                                                      लघुकथा

दो बूँदें मुक्ताकाश में विचरण करती हुईं पुष्प की पाँखुरी पर स्थित थीं। पवन ने उन्हें देखा और पहली बूँद से निवेदन किया कि वह उसे समुद्र ( वारिधि ) तक पहुँचा सकती है। बूँद ने कुछ सोचा और एक पुराने कवि की ये पंक्तियाँ उसे याद आ गईं, वह बोली-

    "जैहै बनि बिगरि न वारिधता वारिधि की
   बूँदता बिलैहै बूँद विबस विचारी की…।"

उसने सागर में विलय की अनिच्छा विनम्रता से प्रकट कर अपने स्वाभिमानी होने का बोध करा दिया।
पवन ने दूसरी बूँद से वही अनुरोध किया। यह भी कहा कि समुद्र ने ही उससे ऐसा करने के लिये कहा है। पवन का अनुरोध सुन दूसरी बूँद का भी स्वाभिमान जाग उठा और उसने भी एक आधुनिक कवि की पंक्तियों का सहारा लेकर अपने मन की बात कह डाली।

    "कह देना ! समन्दर से, हम ओस के मोती हैं
   दरिया की तरह तुझसे, मिलने नहीं आएँगें ।"

पवन बेचारा दूसरी बूँद का यह उत्तर सुनकर हक्का-बक्का रह गया।

इस पूरे दास्तान को झाड़ी में छिपा एक जुगुनू बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह सोचने लगा, "कितनी स्वाभिमानिनी हैं दोनों बूँदें…मगर समुद्र में न मिलने की बात दोनों ने कितने अलग-अलग ढँग से कही है। 
एक के कथन में विनम्रता है और दूसरी के कथन में अहंकार…
दोनों स्वाभिमानी हैं फिर भी दोनों में इतना अन्तर आखिर क्यों?…
क्या अवस्था का अन्तर है…? परिवेश का अन्तर है…? संस्कारों का अन्तर है…? पीढ़ी अन्तराल है…? या कुछ और कारण है…?"

जुगुनू बेचारा देर तक यही सोचता रह गया।


-डा० जगदीश व्योम

Saturday, July 23, 2005

साहसी निर्णय

‘वर और कन्या अब फेरे लेंगे’ पुरोहित के मुख से यह सुनकर दोनों के चेहरे खिल उठे। दोनों की आँखों में भविष्य के मधुरिम सपने तैरने लगे। तभी दूल्हा का छोटा भाई मण्डप में आया और दूल्हे के कान में कुछ कहकर चला गया।
पुरोहित ने पुनः कहा कि ‘वर-कन्या अब फेरे लेने लिए खड़े हो जाएँ।’ कन्या पक्ष ने खुशी खुशी कन्या को सहारा देकर खड़ा किया परन्तु दूल्हा अपनी जगह बैठा रहा। जब काफी देर के बाद भी दूल्हा फेरे लेने के लिए खड़ा नहीं हुआ तो उससे पूछा गया कि
‘क्या बात है?’ दूल्हे ने कोई उत्तर नहीं दिया …  बस बैठा रहा। बार-बार पूछने पर आखिर उसने चुप्पी तोड़ी और बोला-
“पिताजी ने फेरों के लिए मना किया है”
“क्यों?...”  एक साथ कई प्रश्न उछले।
“मुझे नहीं पता ... आप खुद जाकर उनसे ही बात कर लीजिए”  -दूल्हे ने अपनी बात पूरी की।
मण्डप में सन्नाटा छा गया... कन्या के पिता कुछ लोगों के साथ जाकर दूल्हे के पिता से मिले।
“चौधरी साहब ! पहले दो लाख  का इन्तजाम कीजिए ... तभी फेरे पडेंगे ... समझे ... ”  -दूल्हे के पिता ने रौब के साथ कहा।
“हम इस समय इतने पैसों का इन्तजाम भला कैसे कर सकते हैं ... कन्या मण्डप में बैठी है ... साइत निकली जा रही है... आप हम पर मेहरवानी कीजिए और फेरे पड़ने दीजिए... हम वादा करते हैं कि कुछ न कुछ जरूर करेंगे।” -कन्या के पिता ने हाथ जोड़कर विनती की।
कन्या के पिता आखिर लौट आए... खाली हाथ... मण्डप में सन्नाटा छा गया। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। सब एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। चारों ओर निराशा और हताशा छायी हुई थी।
रजनी ने धीरे से अपने होने वाले जीवन साथी से कहा- “यह क्या तमाशा है? मेरी व मेरे पिता की बेइज्जती करके आपको अच्छा लग रहा है?...  मैं पढ़ी-लिखी हूँ... मैं वादा करती हूँ कि ट्यूशन करके मैं यह रकम आपके पिताजी को चुका दूँगी ...  आप फेरे लीजिए और मुझे व मेरे घर वालों को बेइज्जत होने से बचा लीजिए।”
“मैं कुछ नहीं कर सकता ... पिता जी का बात पत्थर की लकीर है... मैं जौं भर भी नहीं हिल सकता... रुपए तो अभी देने ही होंगे नहीं तो फेरे पड़ना मुश्किल है।”
अपने होने वाले जीवन-साथी के मुख से यह सुनकर रजनी की आँखों के आगे अँधेरा छा गया... ऐसा अँधेरा कि जिसमें कुछ सूझ ही नहीं रहा हो... वह निराशा के घोर अंधकार में डूबती चली गई। तभी उसे अंधकार में से कुछ सूझा ... और उसने मन ही मन एक निर्णय ले लिया... ऐसा निर्णय जो उसके स्वाभिमान से जुड़ा था, जो उसके सम्मान से जुड़ा था, जो उसके परिवार के मान-सम्मान से जुड़ा था... और जो समूची नारी जाति के सशक्तीकरण, सम्मान और स्वाभिमान का प्रतीक था।
रजनी ने मण्डप के पास बैठे अपने मामा के हाथ से मोबाइल लिया और तेजी से एक नम्बर डायल किया।
“हैलो ! ... मैं शादी के मण्डप से रजनी बोल रही हूँ... जी... यहाँ 72 कोठी बाजार से... जी हाँ... आप फौरन यहाँ आ जाइए...”
कोई कुछ समझ नहीं पाया कि उसने किसे फोन पर बुलाया है। शायद किसी रिश्तेदार को बुलाया होगा, यही अनुमान लगाया रजनी के मामा और रिश्तेदारों ने, जो उस समय मण्डप के आस-पास थे।
थोड़ी ही देर में एक जीप आकर दरवाजे पर रुकी। पुलिस को देखकर सब स्तब्ध रह गए। रजनी के फोन का रहस्य अब सबकी समझ में आता जा रहा था।
अब दूल्हे के पिता जी की हालत खस्ता थी, पुलिस की मौजूदगी देखकर वह इतनी जल्दी मान जाएँगे, यह किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। मण्डप पर आकर उन्होंने दूल्हे से फेरे पूरे करने का आदेश दिया ... दूल्हा खड़ा हो गया।
तभी रजनी ने एक झटके से फेरों के लिए जोड़ी गई गाँठ खोलकर अलग कर दी और हिकारत से दूल्हे व उसके पिता की ओर देखते हुए कहा-
“जो पैसों के लिए मानवीय सम्बंधों को भी ताक पर रख दे ... मैं ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन नहीं बिता सकती ... मुझे इस बात की खुशी है कि मैं एक अन्तहीन अँधेरी खोह में गिरते-गिरते बच गई ... नारी कोई वस्तु नहीं है कि उसे सिक्कों से बेचा और खरीदा जा सके।”
“आप इनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कीजिए ... मैं रिपोर्ट लिखवा रही हूँ...”
पुलिस अपने काम में जुट गई...
रजनी के साहसी निर्णय की चर्चा जंगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई। उसके चेहरे पर किसी प्रकार का क्षोभ, निराशा, हताशा या हीन-भाव नहीं बल्कि दर्पयुक्त चमक थी और अपने निर्णय के प्रति स्वयं के लिए अपरिमित सम्मान भी।
अब चारों ओर रजनी के निर्णय की चर्चा थी और उसके साहसी कदम के प्रति आदर का भाव।