लावारिश बैग
-डा० जगदीश व्योम
( लघुकथा )
रेलगाड़ी में काफी भीड़ थी। भोपाल तक आते-आते डिब्बा लगभग खाली हो गया था लेकिन चमड़े का एक बैग ऊपर वाली साइड वर्थ पर रखा था। उसके मन में बैग को लेकर लालच आ गया। अभी उसे और आगे तक जाना था।
भोपाल पर कुछ यात्री और आ गये और भीड़ फिर बढ़ने लगी। अब भी उसकी निगाहें बैग पर टिकी थीं। उस लावारिस बैग पर अब उसने अपना अधिकार सा मान लिया था। लेकिन अभी तक वह उसे छूने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। उसके चोर मन में भय था कि कहीं बैग को छूते ही उसका असली मालिक न आ जाए।
” ये बैग किसका है ? “- पुलिस इंस्पेक्टर ने बैग को थोड़ा सा खोलकर देखने के बाद लगभग चौंकते हुए पूछा।
वह चुप बना रहा और जान-बूझ कर आँखें बंद करने का नाटक किया।
” मैं पूछ रहा हूँ कि यह बैग आप लोगों में से किसका है ?“- पुलिस इंस्पेक्टर ने पुनः रौबदार आवाज में पूछा।
”मेरा.........मेरा बैग है साहब ! “-वह यात्री थोड़ा घबराता हुआ सा बोला।
”तो फिर इसे अपने पास क्यों नहीं रखा.........सच-सच बताओ यह बैग तुम्हारा ही है या यूँ ही लावारिस बैग देखकर मन में लालच आ गया है।“- पुलिस इंस्पेक्टर ने उसकी ओर प्रश्न उछाला।
”क्या बात करते हैं साहब ! मेरा बैग है......मैंने उसे बर्थ घेरने के लिए रख दिया है।“- उस यात्री ने चेहरे पर आत्मविश्वास लाने की कोशिश करते हुए कहा।
इंस्पेक्टर उस यात्री को बैग सहित उतार कर थाने ले गया। वह रास्ते भर विरोध करता रहा और बैग पर अपना ही अधिकार बताता रहा।
थाने पहुँच कर पुलिस इंस्पेक्टर ने रजिस्टर में प्रकरण दर्ज करते हुए बैग उसके नाम लिख दिया और उसे बैग सौंपते हुए अपने सामने ही उसे खोलने का आदेश दिया।
अब वह यात्री पुलिस इंस्पेक्टर के पैरों पर गिरकर बुरी तरह से रो रहा था और कह रहा था कि ”साहब ! यह बैग हमारा नहीं है।“
उस बैग में एक महिला का कटा हुआ सिर पोलिथीन में पैक करके रखा हुआ था।
अब वह थाने की हवालात में बंद था।