Saturday, July 23, 2005

साहसी निर्णय

(लघु कथा)


‘वर और कन्या अब फेरे लेंगे’ पुरोहित के मुख से यह सुनकर दोनों के चेहरे खिल उठे। दोनों की आँखों में भविष्य के मधुरिम सपने तैरने लगे। तभी दूल्हा का छोटा भाई मण्डप में आया और दूल्हे के कान में कुछ कहकर चला गया।
पुरोहित पुनः कहा कि वर-कन्या अब फेरे लेने लिए खड़े हो जाएँ। कन्या पक्ष ने खुशी खुशी कन्या को सहारा देकर खड़ा किया परन्तु दूल्हा अपनी जगह बैठा रहा। जब काफी देर के बाद भी दूल्हा फेरे लेने के लिए खड़ा नहीं हुआ तो उससे पूछा गया कि
‘क्या बात है?’ दूल्हे ने कोई उत्तर नहीं दिया ....... बस बैठा रहा। बार बार पूछने पर आखिर उसने चुप्पी तोड़ी-
“पिताजी ने फेरों के लिए मना किया है”
“क्यों?....” एक साथ कई प्रश्न उछले।
“मुझे नहीं पता ....... आप खुद जाकर उनसे ही बात कर लीजिए” दूल्हे ने अपनी बात पूरी की।
मण्डप में सन्नाटा छा गया। कन्या के पिता कुछ लोगों के साथ जाकर दूल्हे के पिता से मिले।
“चौधरी साहब ! पहले पन्द्रह हजार का इन्तजाम कीजिए तभी फेरे पडेंगे ....... समझे ........ ।” दूल्हे के पिता ने रौब के साथ कहा।
“हम इस समय इतने पैसों का इन्तजाम भला कैसे कर सकते हैं .......... कन्या मण्डप में बैठी है ........ साइत निकली जा रही है...... आप हम पर मेहरवानी कीजिए और फेरे पड़ने दीजिए....... हम वादा करते हैं कि कुछ न कुछ जरूर करेंगे।” -कन्या के पिता ने हाथ जोड़कर विनती की।
कन्या के पिता आखिर लौट आए...... खाली हाथ....... मण्डप में सन्नाटा छा गया। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। सब एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। चारो ओर निराशा और हताशा छायी हुई थी।
रजनी ने धीरे से अपने होने वाले जीवन साथी से कहा- “यह क्या तमाशा है? मेरी व मेरे पिता की बेइज्जती करके आपको अच्छा लग रहा है?....... मैं पढ़ी-लिखी हूँ......... मैं वादा करती हूँ कि ट्यूशन करके मैं यह रकम आपके पिताजी को चुका दूँगी ....... आप फेरे लीजिए और मुझे व मेरे घर वालों को बेइज्जत होने से बचा लीजिए।”
“मैं कुछ नहीं कर सकता ......... पिता जी का बात पत्थर की लकीर है...... मैं जौं भर भी नहीं हिल सकता....। रुपए तो अभी देने ही होंगे नहीं तो फेरे पड़ना मुश्किल है।”
अपने होने वाले जीवन साथी के मुख से यह सुनकर रजनी की आँखों के आगे अँध्ोरा छा गया...... ऐसा अँधेरा कि जिसमें कुछ नहीं सूझ रहा हो...... वह निराशा के घोर अंधकार में डूबती चली गई। तभी उसे अंध्ाकार में से कुछ सूझा ........ और उसने मन ही मन एक निर्णय ले लिया...... ऐसा निर्णय जो उसके स्वाभिमान से जुड़ा था, जो उसके सम्मान से जुड़ा था और जो समूची नारी जाति के सशक्तीकरण, सम्मान और स्वाभिमान का प्रतीक था।
रजनी ने मण्डप के पास बैठे अपने मामा के हाथ से मोबाइल लिया और द्रुतगति से एक नम्बर डायल किया।
“हैलो ! ...... मैं शादी के मण्डप से रजनी बोल रही हूँ...... जी...... यहाँ 72 कोठी बाजार से..... जी हाँ..... आप फौरन यहाँ आ जाइए.....।”
कोई कुछ समझ नहीं पाया कि उसने किसे फोन पर बुलाया है। शायद किसी रिश्तेदार को बुलाया होगा, यही अनुमान लगाया रजनी के मामा और रिश्तेदारों ने, जो उस समय मण्डप के आस-पास थे।
थोड़ी ही देर में एक जीप आकर दरवाजे पर रुकी। पुलिस को देखकर सब स्तब्ध्ा रह गए। रजनी के फोन का रहस्य अब सबकी समझ में आता जा रहा था।
अब दूल्हे के पिता जी की हालत खस्ता थी, पुलिस की मौजूदगी देखकर वह इतनी जल्दी मान जाएँगे, यह किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। मण्डप पर आकर उन्होंने दूल्हे से फेरे पूरे करने का आदेश दिया ....... दूल्हा खड़ा हो गया।
तभी रजनी ने एक झटके से फेरों के लिए जोड़ी गई गाँठ खोल कर फेंक दी और हिकारत से दूल्हे व उसके पिता की ओर देखते हुए कहा-
“जो पैसों के लिए मानवीय सम्बंधों को भी ताक पर रख दे ....... मैं ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन नहीं बिता सकती ........ मुझे इस बात की खुशी है कि मैं एक अन्तहीन अँध्ोरी खोह में गिरते-गिरते बच गई ....... नारी कोई बस्तु नहीं है कि उसे सिक्कों से बेचा और खरीदा जा सके।”
“आप इनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कीजिए ...... मैं रिपोर्ट लिखवा रही हूँ.....।”
रजनी के निर्णय की चर्चा जंगल में आग की तरह चारों ओर फैल गई। उसके चेहरे पर किसी प्रकार का क्षोभ, निराशा, हताशा या हीनभाव नहीं बल्कि दर्पयुक्त चमक थी और अपने निर्णय के प्रति स्वयं के लिए अपरिमित सम्मान भी।
अब चारों ओर रजनी के निर्णय की चर्चा थी और उसके साहसी कदम के प्रति आदर का भाव।


-डॉ0 जगदीश व्योम

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